मॅाडल टाउन दिल्ली की हमारी लोहड़ी
मॅाडल टाउन दिल्ली की हमारी लोहड़ी
-नीलिमा शर्मा
ये लेख पीस विजिल की समर्थक नीलिमा शर्मा ने लिखा है जो कि मशहूर नुक्कड़ नाटक संस्था निशांत नाट्य मंच की सचिव हैं.
लोहड़ी जब भी आती है मुझे मॅाडल टाउन दिल्ली का अपना घर याद आ जाता है। सुधा गुप्ता भाभी जी और अशोक भाई साहब के उस मकान में हम 18 साल रहे। भाभी जी और अशोक भाई साहब जमकर लोहड़ी मानते थे। भाभी जी और मैं उत्तर प्रदेश से थे जहां पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के मुक़ाबले लोहड़ी बहुत कम मनाई जाती थी।
अशोक भाई के माँ-बाप यानी चाई जी और पापा जी घर के बुज़ुर्ग थे जिनके मार्ग-निर्देशन पर लोहड़ी सम्पन्न होती थी। हफ़्ते-भर पहले, आस-पास के पड़ौसियों और चारों-पांचों किराएदारों को लोहड़ी के आयोजन की सूचना दे दी जाती थी। और फिर मकर संक्रांति से एक दिन पहले यानी 13 जनवरी को घर के बड़े से गेट के बाहर सड़क के किनारे हफ़्ते-भर से जमा की जा रही पुरानी लकड़ियों, पूराने टूटे-फूटे फ़र्नीचर के कुछ हिस्से, नयी बेकार लकड़ियों और गोबर के उपलों का एक व्वयस्थित सा पहाड़ खड़ा किया जाता। कुमाऊं से दिल्ली आकर बसे कुँवर सिंह और उनका परिवार इस को बहुत अच्छे तरीक़े से तैयार करता था। लकड़ियों को लगाने के बाद सभी पड़ौसियों को आवाज दे-दे कर बुलाया जाता। हर धर्म और इलाक़ों के अड़ौसी-पड़ौसी वहाँ पहुँच जाते।
शम्सुल इस्लाम, मैं, शीरीं, इन्द्र भाटिया साहब, उनकी पत्नी (पड़ोस की एक और चाई जी) और उनकी बहू-बेटा, पीछे-पीछे इनका बेटा अर्शदीप सिंह उर्फ़ आशू अपनी नयी छोटी सी पगड़ी के साथ आते, दौलत राम गोयल जी सपरिवार, दुआ परिवार, प्रोफ़ेसर रे और उनका परिवार, कुछ समय के लिये रहने आया डीन साहेब का ईसाई परिवार, डॉ. बैश्य, जो आसाम से थे, उन का परिवार, तमिल-नाडू का शर्मा परिवार, ओडिशा से नायक भाई, अलीगढ़ की तारा और उनकी बेटियाँ, मोहल्ले के और आठ-दस बच्चे सब सजधज कर लोहड़ी मनाने पहुंचते। निशांत नाट्य मंच के साथी भी अपनी ढपली लेकर हाज़िर रहते।
पापा जी और चाई जी के आते ही रौनक़ और बढ़ जाती। चाई जी के हाथों में मूंगफली, रेवड़ी और भुने मक्कों की परात होती जिसमें सभी पड़ौसी भी अपनी-अपनी मूँगफलियाँ, रेवड़ीयां मिला देते थे।
कुँवर सिंह, शम्सुल इस्लाम, सिंह साहेब और अशोक भाई मिलकर लोहड़ी की लकड़ियों को जलाने की ज़िम्मेदारी उठाते। धीरे-धीरे लकड़ियाँ आग पकड़तीं। आग की लपटें आसमान को छूने लगतीं तो चाई जी सब से पहले उस में मूंगफली आदि डालतीं। और हम सब लोगों को एक-एक मुट्ठी देतीं। हम सब भी उनकी तरह आग में रेवड़ी आदि डालते । फिर सब को खाने के लिये भी ख़ूब प्रसाद मिलता । यह प्रसाद प्यार-मोहब्बत का होता। सब के घर से आता और एक परात में समा जाता। और अचानक सब से रोचक सीन शरू हो जाता ।
अशोक भाई साहब शुरू करते:
सुंदर मुंदरिये…
हम सब एक ताल में कहते:
होए, तेरा कौन बेचारा, होए,
दुल्ला भट्टी वाला, होए…
निशांत की ढपली की थाप साथ-साथ चलती। दूर कहीं से ढोल बजाने वालों की आवाज़ें सुनायी देतीं । कुछ देर में वो भी हमारे साथ आ जमते। सब लोग ख़ुशी-ख़ुशी उन्हें प्रसाद और पैसे देते। और ख़ूब नाच-गाना होता। हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई-जैन-गोयल-धोबी-ब्राह्मण-बनिया-दलित, सब इस में मगन हो जाते गाते-बजाते, खाते-पीते, हाथ तापते। जनवरी की बर्फ़ीली हवा लोहड़ी की आग के आगे हार जाती। जब तक आग पूरी तरह बुझ न जाती सभी खड़े रहते।
चाई जी औरं पापा जी 1947 के बंटवारे से पहले लाहौर शहर के मॅाडल टाउन में रहते थे और फिर दिल्ली के मॅाडल टाउन में बस गये। चाई जी औरं पापा जी बीच-बीच में हम लोगों को लाहौर की लोहड़ी के बारे में बताते, ख़ासकर चाई जी। वे अपनी यादें हम सब से साझा करतीं। वे बीते दिनों को याद करके केई बार रो भी देतीं थीं। उन्होंने ही हमें लोहड़ी का अर्थ समझाया था जिसे बाद में शहीद भागत सिंह के भांजे प्रोफ़ेसर जगमोहन सिंह ने और तफ़सील से समझाया। अत्याचारियों से लड़ना यानी लोहा लेना चाहिये। ज़ुल्म के आगे झुकना नहीं चाहिये। अब्दुल्लाह भट्टी की तरह अड़ जाना चाहिये। लोहड़ी शब्द का अर्थ है: दुश्मन से लोहा लो, अड़ जाओ!
एक प्यारा सा पर्व जो हिंदुओं-मुसलमानों-सिखों के साझे जीवन की साझी विरासत है। सुंदर-मुंदर नाम की हिन्दू लड़कियों को अमीर बिगड़ेल बदमाशों से अब्दुल्लाह उर्फ़ दुल्ला भट्टी ने बचाया और ख़ुद फाँसी पर चढ़ गया। जन-नायक बन गया। ज़ालिमों से लोहा लेने के लिये अडिग रहा और लोहड़ी बन गया।
मॅाडल टाउन दिल्ली में लोहड़ी की आग में हम सब मिलकर साझा स्वरों में गीत गाते, खाते-पीते, एक दूसरे से बात करते, सालों-साल साथ रहे। डफली और ढोलक की थाप और लय के साथ लोहड़ी की आग भी ऊंची उठती जाती। चाई जी औरं पापा जी की बातें और यादें आपसी रिश्तों को मज़बूत बनाती रहीं। वे रिश्ते आज भी भाभी जी और अशोक भाई साहब हमारे से बनाए हुए हैं जब की हम दूसरे शहर जाकर बस गये हैं।
आईये, अब्दुल्लाह भट्टी बन के आईये और इस दौरे सियासत में नफ़रत फैलाने वालों से मुक़ाबला करते हुए, लोहा लेते हुए, अड़ते हुए, इस सुंदर मुंदर देश की हिफ़ाज़त कीजिए!
नीलिमा शर्मा