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ग़द्दारी नहीं - ये कुछ और है

ग़द्दारी नहीं - ये कुछ और है

ये तो पहले ही साफ़ था कि RSS की भारत सरकार और इजराइल की zionist सरकार में दोस्ती है. पर अब ये भी खुळासा हो गया है कि भारत सरकार ने फ़िलिस्तीनियों के नरसंहार के लिए इजराइली सरकार को हथियार भेजे हैं. इजराइल के बनने से पहले भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेता फिलिस्तीन पर इजराइल के थोपे जाने के खिलाफ थे. आज़ादी के बाद भारत ने लगातार फ़िलिस्तीनियों के अधिकारों को सुरक्षित करने वाले संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्तावों के पक्ष में मतदान किया है. साथ ही ऐसे कई प्रस्तावों को सह-प्रायोजित भी किया है. भारत फिलिस्तीन को मान्यता देने वाला पहला ग़ैर-अरब देश था. ऐसे में भारत की मौजूदा सरकार का इजराइल को समर्थन ग़द्दारी कहा जा सकता है. पर ऐसा सोचना ग़लत ही नहीं बल्कि नादानी होगी.

सब से पहली बात तो ये कि किसी को ग़द्दार कहने से तात्पर्य होता है कि वो पहले अपना था मगर फिर उस ने धोखा दे दिया. फिलिस्तीन के सन्दर्भ में ये समझना ज़रूरी है कि इजराइल की स्थापना पूरी तरह से एक औपनिवेशिक कब्ज़ा, चोरी और नियंत्रण करने की तरकीब थी. अंग्रेजी में कहा जाए तो settler colonialism. ये colonialism/उपनिवेशवाद का वो तरीका है जिस में उपनिवेशवादी किसी जगह में बस कर वहां के मूल निवासियों को स्थाई रूप से विस्थापित कर देते हैं. उन के घर, काम करने की जगहें और उन के प्राकृतिक संसाधानों को हड़प कर उन्हें बाहर खदेड़ देते हैं. उन्हें ग़ुलाम बना लेते हैं या मार डालते हैं. इजराइल ने फिलिस्तीनियों के साथ यही किया है. इस की तुलना हम दक्षिण अफ्रीका में हुए apartheid से  कर सकते हैं. हालाँकि वहां अफ्रिकानेर रंगभेदी सरकार ने मूल निवासियों को ग़ुलामों की तरह इस्तेमाल किया.  क़त्लेआम भी हुआ पर ज़्यादातर मूल निवासिओं से बिना अधिकारों के और बुरी स्थिति में रखते हुए मज़दूरी का काम लिया गया. पर जहाँ तक चोरी और संसाधन हड़पने का सवाल है तो वो पूरी तरह किया गया.

सभी मापदंडों के हिसाब से फिलिस्तीन में इजराइल की कार्यवाहियों को apartheid माना गया है. यही कारण है कि दक्षिण अफ्रीका की जनता ने फिलिस्तीन की जनता का  दर्द भली भांति समझा है और हमेशा उस का साथ दिया है. इस का नवीनतम उदाहरण है दक्षिण अफ्रीका का इजराइल के खिलाफ International Court of Justice में genocide/नरसंहार का केस लड़ा जाना. पर फिलिस्तीनियों का साथ देने की ये निष्ठा इसलिए बनी रही क्योंकि दक्षिण अफ़्रीका की सरकार (अभी कुछ दिनों पहले तक) उन लोगों से गठित थी जिन्होनें apartheid के ख़िलाफ़ संघर्ष किया था. वे colonialism/उपनिवेशवाद-विरोधी सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध थे. आगे क्या हो ये बताना मुश्किल है; ख़ास तौर पर जब दक्षिण अफ्रीका की सरकार आज ऐसे लोगों के समर्थन से चल रही है जिन का इतिहास apartheid के समर्थन का था. फिर भी अभी तक तो दक्षिण अफ्रीका फिलिस्तीन के साथ ही खड़ा है.

पर 2014 से जो सरकार भारत को चला रही है उस का इतिहास colonialism/ उपनिवेशवाद की मदद करने का इतिहास है. इस लिए इस में कोई हैरानी की बात नहीं है कि RSS की भारत सरकार इजराइल की Zionist सरकार की दोस्त है और उस के द्वारा किये जा रहे दमन में हिस्सेदार है.

जिस संस्था ने अपने ही देश के सब से बड़े उपनिवेशवाद-विरोधी नेता, गांधी को बन्दूक से छलनी कर दिया, उस का फिलिस्तीनी जनता  के नरसंहार करने वाली इसरायली उपनिवेशवादी सरकार को हथियार देना कोइ आश्चर्य की बात नहीं है.

अब अगली बात है धर्म और धार्मिक राष्ट्रवाद की. जिस तरह अपने झंडे पर शहादा लिख देने से सऊदी अरब इस्लाम धर्म का प्रतिनिधि नहीं बन सकता - दुनिया के लगभग सभी मुस्लिम फिलिस्तीन के साथ खड़े हैं जब कि सऊदी अरब इजराइल की दलाली में सब से आगे है - या जिस तरह भगवा कपड़े पहन लेने से या मंदिर का उद्घाटन करने से कोई हिन्दू धर्म का प्रतिनिधि नहीं हो जाता, उसी तरह इजराइल का झंडा लहराने से और यहूदियों को बचाने की रट लगाने से कोई यहूदी धर्म का प्रतिनिधि नहीं बन जाता. यही कारण है कि दुनिया में बहुत से यहूदी इजराइल के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों में शामिल हैं. साथ ही, कई यहूदी कार्यकर्ता और संस्थाएं खुले तौर पर फ़िलिस्तीनियों के साथ खड़ी हैं. इजराइल के अंदर भी ऐसे यहूदी हैं पर उन की संख्या बहुत कम है. धार्मिक राष्ट्रवाद के उन्माद ने इजराइल के ज़्यादातर लोगों की आँखों के आगे पर्दा दाल दिया है. वो फ़िलिस्तीनियों पर हो रही क्रूरता को नहीं देख पाते. ये ठीक उसी तरह है जैसे भारत में RSS द्वारा फैलाया गया मुस्लिम विरोधी propaganda. Hindutva और Zionism, दोनों ही धर्म का इस्तेमाल सत्ता के लिए करते आये हैं और दोनों ही मुसलमानों को अपने धार्मिक समुदायों का सब से बड़ा दुश्मन बताते हैं. तो दोनों का दोस्त बनना लाज़मी है.

तीसरी और आख़िरी बात - यूरोप में फासीवादी और नाज़ी सरकारों और उन के गठबंधन को नज़रंदाज़ करने और उन का विरोध न करने का ख़ामियाजा पूरी दुनिया उठा चुकी है ये बात याद रखना भी ज़रूरी है कि इस का शिकार यहूदी तो हुए ही थे पर बहुत बड़ी संख्या में दुनिया के और लोग भी मारे गए जिस में सैनिक और आम जनता दोनों ही शामिल थे. Hindutva का केंद्र भारत है और Zionism का फिलिस्तीन पर इन से खतरा पूरी दुनिया को है. इन से लड़ने की ज़िम्मेदारी हम सब की है.

ऐसा नहीं है की दूसरी भारतीय सरकारों के इजराइल से सम्बन्ध नहीं रहे. 1962 में चीन के साथ युद्ध में भारत ने इजराइल से हथियार लिए थे. इसे मजबूरी कहें या ग़लती पर आज की बात बिलकुल अलग है. चीन और भारत के बीच युद्ध की इजराइल और फिलिस्तीन के संबंधों से बराबरी कतई नहीं की जा सकती. ये दो देशों के बीच युद्ध नहीं है. ये करीबन 80 साल से सताए जा रहे लोगों को हमेशा के लिए ख़त्म करने का मंसूबा है और इस में साथ दे रही है भारत की सरकार.

  • शीरीन, जून 2024

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