पीटे सैमप्रस और मैं
मैं करीबन 10 साल की रही होंगी जब टेनिस की दुनिया में एक नए सितारे का उदय हुआ - पीट सैमप्रस. मुझे टेनिस की कोई जानकारी नहीं थी पर मैनें अख़बारों में उन की तसवीरें देखी थीं. ये साफ ज़ाहिर था कि उन को टेनिस के नवीनतम सितारे के रूप में देखा जा रहा है.
स्कूल में एक लड़की ने मुझ से पूछा कि इस सितारे का नाम कैसे pronounce होता है? हम दोनों ने ही किसी को ये नाम बोलते हुए नहीं सुना था; केवल पढ़ा था अंग्रेजी के अख़बार में. अंग्रेजी की spelling देखते हुए मुझे समझ में नहीं आया कि Pete कैसे बोला जायेगा. मुझे नहीं मालूम था कि Peter या Petros नाम का short form कई बार Pete होता है और उसे पीट कहा जाता है. पर क्लास में मेरे नंबर अच्छे आते थे और टीचर्स मेरी general knowledge अच्छी होने की मिसाल दिया करती थीं. मैनें सोचा अगर कह दिया की मुझे नहीं पता तो बेज़्ज़ती हो जाएगी. हिचकिचाहट महसूस होते हुए भी मैंने कहा, “आ… आ… आयी थिंक Pete को पीटे कहेंगे पर बाद के ए को थोड़ा हल्के से कहेंगे”. मेंरे दिमाग़ में Peter से r हटाने पर जो अक्षर बचते थे उन का उच्चारण यही बनता था. फिर अचानक से मुझे मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी पेले का ध्यान आया कि हो सकता है Pele के जैसे Pete का pronunciation पेटे हो! मगर अगले ही क्षण मुझे लगा कि ब्राज़ील और अमरीका के खिलाड़ियों के नामों में कुछ तो अंतर होगा! तो मैनें थोड़ी देर सोच कर कहा, “पीटे सैमप्रस”. लड़की ने दोहराया, “पीटे सैमप्रस” और मैनें कहा, “हाँ,पीटे (बाद का e/ए थोड़ा कम ज़ोर डाल के)”.
थोड़ी देर में एक और लड़की हम से बात करने आयी. पहली लड़की को लगा क्यों न पता लगाएं कि उसे इस नए सितारे के बारे में कितनी जानकारी है. उस ने कहा, “तुम ने देखा टेनिस का नया प्लेयर? क्या कमाल का खेलता है!”. दूसरी लड़की ने कहा, “हाँ, पीट सैमप्रस? सच, बहुत ज़बरदस्त player है”. पहली लड़की ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा, “पीट! हा हा हा, पीट नहीं, पीटे!”. दूसरी लड़की बोली, “पीटे नहीं पीट. उस का नाम पीट है”. पहली लड़की ने मेरी तरफ परेशान नज़रों से देखा. दूसरी लड़की को खेल-कूद की काफी जानकारी थी. वो स्कूल में बहुत से sports खेला करती थी. मुझे मेरी general knowledge अच्छी होने की छवि टूटने का डर था और अपने ग़लत होने का अटपटापन भी. फिर भी समझदारी इसी में थी कि उस की बात मान ली जाए.
मैनें कहा, “हाँ,हाँ, पीट ही होगा”. पहली लड़की थोड़ी झुंझलाई पर उस ने भी तय किया कि खेल-कूद की जानकारी रखने वाली लड़की को इस बात का ज़्यादा ज्ञान होगा. हम दोनों के लिए ही अच्छा रहा कि हम ने जगहँसाई होने से पहले ही पीट सैमप्रस का सही नाम बोलना सीख लिया. थोड़ी शर्मिंदगी हुई पर कोई बात नहीं. कम से कम हम पूरी दुनिया में पीटे सैमप्रस कहते तो नहीं फिरे! और ये उस लड़की का बड़प्पन था कि उस ने न तो हमारा मज़ाक उड़ाया और न किसी और को इस बारे में बताया.
अब इस घटना के बारे में सोचती हूँ तो हँस हँस के पागल हो जाती हूँ. पीटे सैमप्रस! पर उस समय पीटे ही मुझे सही लगा था. वो उम्र भी ऐसी थी जिस में हम किसी के सामने ये क़ुबूल करने से हिचकिचाते हैं कि हमें कुछ नहीं आता. इस का सम्बन्ध confident दिखने से है. एंथ्रोपोलॉजी या मानव जाती के विकास का ज्ञान हमें बताता है कि खासकर किशोरावस्था में हम ऐसा करते हैं ताकि हमउम्र लोग हमे अपने समूह/टोली में शामिल कर लें. अगर ऐसा लगेगा कि आप नासमझ हैं या बुद्धू हैं तो आप को लोग अपनी टोली में स्वीकार नहीं करेंगे. इंसान एक सामाजिक प्राणी है. उस के लिए किसी group का हिस्सा होना स्वाभाविक है. Group अगर आप को स्वीकार न करे तो ये आप के लिए मुश्किल स्थिति हो सकती है. इसी लिए कई बार, ख़ास तौर पर किशोरावस्था में हम अपनी क़ाबिलियत से ज़्यादा या अपने ज्ञान से अधिक ज्ञानी होने का दावा करते हैं ताकि लोग हमें अपने समूह में शामिल करने से न कतराएं.
पर ऐसा व्यव्हार अगर स्थाई रूप से हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाए तो बहुत नुकसान कर जाता है. मान लीजिये कि मैं ये ज़िद पकड़ के बैठ जाती कि Pete को पीटे ही कहा जाता है तो क्या होता? मैं सही उच्चारण नहीं सीखती, जानकार मेरी हंसी उड़ाते और बेकार में मैं दूसरों से झगड़ा करती रहती. अब सोचिये कि अगर यही व्यवहार समाज के बड़े हिस्से का व्यवहार बन जाए तो क्या होगा? शांति शिक्षा के काम में लगे हम लोगों के लिए इस प्रवृत्ति को समझना बहुत ज़रूरी है.
ये इस लिए ज़रूरी है कि सभी तथ्यों और आंकड़ों को दिखाने के बावजूद कुछ लोग सच मानने को तैयार नहीं होते. अगर ख़ुद पीट सैमप्रस भी उन के पास आयें और कहें कि मेरे नाम का सही उच्चारण पीट है तो भी वो यही कहेंगे कि, “नहीं, तुम्हारा नाम पीटे है!”. पिछले कुछ समय में ये प्रवृत्ति बहुत आम हो गयी है. ऐसे में सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक बदलाव और न्याय के काम में लगे लोगों को हताशा का सामना करना पड़ता है. आप कितने भी तथ्य पेश करें, सामने वाला मानने को तैयार ही नहीं होता! आख़िर क्यों? हम अक्सर कहते हैं कि ये प्रोपेगंडा का नतीजा है पर तथ्यों के विपरीत प्रोपेगंडा कैसे काम कर जाता है? लोग क्यों झूठी और नफ़रत फैलाने वाली बातों पर यक़ीन कर लेते हैं? यही नहीं, वो ऐसे लोगों का समर्थन करते हैं और ऐसी नीतियों का साथ देते हैं जो उन के अपने ही हितों के खिलाफ हैं. क्यों?
पीस विजिल शांति शिक्षा का काम करने वाली संस्था है. हमारी कोशिश रहती है कि शांति और भाईचारे को नुकसान पहुँचाने वाले कारणों को गहराई से समझा जाये और इन्हें रोकने के तरीके ढूंढें जाएँ.
हम आप को आमंत्रित करते हैं प्रोपेगंडा के मनोविज्ञान को समझने के एक कार्यक्रम में, 3 दिसम्बर, रविवार शाम 8 बजे. कार्यक्रम Zoom के ज़रिये होगा. कार्यक्रम हिंदी में है. यहाँ रजिस्टर करें - प्रोपेगंडा का मनोविज्ञान.
साथ ही हम आप से अपील करते हैं कि आप हमारे संग फिलिस्तीनी जनता के साथ एकजुटता का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाएं. ये दिवस 29 नवम्बर, बुधवार को है. पीस विजिल इस उपलक्ष पर शाम 8 बजे Zoom पर एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन करेगी. ये कार्यक्रम अंग्रेजी में है. यहाँ रजिस्टर करें - फिलिस्तीनी जनता के साथ एकजुटता का अंतर्राष्ट्रीय दिवस.
आप को सलाम,
शीरीन