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तनिष्क़ से इश्क़ न कर

तनिष्क़ से इश्क़ न कर

हिन्दोस्तान में एक हिन्दू और मुस्लिम की शादी आम बात नहीं है. हिन्दू और मुस्लिम तो क्या, लड़का-लड़की दोनों अगर हिन्दू भी हों तो जातियां अलग होने के कारण उनकी शादी नहीं होती. कोइ चीज़ आम न हो इसका मतलब ये नहीं की वो नहीं होती. मैं ख़ुद एक हिन्दू माँ और मुस्लिम पिता की संतान हूँ. ज़्यादातर लोग जब इस बात को जानते हैं तो उन्हें हैरानी होती है - जैसे स्कूल में, कॉलेज में, ऑफिस में, ट्रेन में. इत्यादि. मेरे परिवार जैसे और भी परिवार हैं पर इनकी गिनती कभी भी ज़्यादा नहीं रही. इसीलिये लोगों को हमारे होने पर हैरानी होती है. पर हैरानी और हिक़ारत में फ़र्क़ होता है.

मैं 80 और 90 के दशक में बड़ी हुई. मुझे स्कूल और कॉलेज में कभी भी अंतर-धार्मिक परिवार से आने के कारण घृणा या अपमान का सामना नहीं करना पड़ा. मेरे टीचर्स और सहपाठियों ने उत्सुकता और हैरानी दिखाई, हिक़ारत नहीं. घृणा अगर किसी ने दिखाई तो मेरी ख़ुद की नानी ने. उन्होनें कभी मेरी माँ और पिता की शादी को क़ुबूल नहीं किया और मेरे पैदा होने के बाद भी उन्होंने अपने रवय्ये को नहीं बदला. जब मेरे माता-पिता मुझे उनसे मिलाने ले गए तो उन्होनें दरवाज़ा तक नहीं खोला. ऐसा होने के बावजूद मेरे ज़्यादातर रिश्तेदार हम से मिलते थे. मेरे लिए मौसी और फुप्फो, दीदी और आपा, पूजा और नमाज़, दिवाली और ईद का एक साथ होना कोई अजूबा नहीं था. बल्कि मेरे लिए क्रिसमस, गुरपर्ब, लोहड़ी और महावीर जयंती का भी इनके साथ-साथ होना कोई अचरज की बात नहीं थी. मेरा स्कूल एक ईसाई संस्था द्वारा चलाया जाता था, मेरे एक पड़ोसी सिख थे और एक पंजाबी हिन्दू और मेरे माता पिता के भाई-समान दोस्त जैन थे जिन्हें मैं हमेशा अपना चाचा कहती आई हूँ.

चाचा-ताऊ के सम्बन्ध में एक बात और कहना ज़रूरी है. मेरे माता-पिता की शादी से मेरी नानी सबसे ज़्यादा नाखुश थीं पर दोनों ही तरफ कुछ और भी ऐसे रिश्तेदार थे जिन्होंने हमें क़ुबूल तो कर लिया पर गर्मजोशी नहीं दिखायी. यही कारण था कि मेरे माता-पिता ने परिवार के बाहर परिवार बनाये. मेरी मां के भाई बने विष्नु गुरुंग जिनके पूर्वज नेपाल से आते थे. मेरी बचपन की तस्वीरों में विष्नु मामा का चेहरा जगह-जगह मिलता है, मेरे सगे मामा का नहीं. मेरे पिता के भाई बने योगेंद्र जैन और भरत आचार्य. कोई मुझसे मेरे चाचाओं का नाम पूछे तो उन्हीं के नाम ज़बान पर आते हैं. इन मैं से कुछ चाचाओं, मामाओं, आंटियों और अंकलों के परिवारों ने भी हमें अपना लिया. उनके लगाव और प्यार के बहुत से क़िस्से याद आते हैं.

जैसे किस तरह मेरे जैन चाचा के पिताजी, मेरे पिता से गर्मजोशी से मिलते थे. उनके परिवार में मीट-मच्छी तो दूर, प्याज़ और लस्सन भी नहीं खाया जाता था पर उन्होनें कभी इन बातों को दोस्ती के बीच न आने दिया. जब मेरे चाचा के पिताजी की मृत्यु हुई तो उनके परिवार ने मेरे पिताजी को अपना मान कर उनसे निवेदन किया कि वो उनकी उर्दू में लिखी डायरी परिवार को पढ़ कर सुनाएं. एक क़िस्सा अपने पड़ोसियों का भी याद आता है. दशहरे पर एक साल, मेरे सिख पड़ोसी, जिन्हें मैं चाईजी और दार्जी कहती थी, मुझे और अपने पोते को रावण का दहन दिखाने ले गए. हम चारों करीबन आधा घंटा चल कर रामलीला वाली जगह पर पहुंचे और वहां खूब मज़े किये, आतिशबाज़ी देखी और रावण का दहन भी. पगड़ी पहने दार्जी, उनके साथ चाईजी, 9-10 साल की मैं - आधी हिन्दू, आधी मुसलमान और मुझे दीदी कहने वाला, पटका पहने उनका पोता. हम सब दशहरा देखने गए और खुशी-खुशी वापस उन घरों में आ गए जो एक दूसरे से जुड़े थे.
 
एक याद अपने दूसरे पड़ोसियों से भी जुड़ी है. हर साल हमारे पंजाबी हिन्दू पड़ोसी लोहड़ी जलाते थे पड़ोस में सभी लोग इसके इंतज़ाम में लगते थे. हम सब देश के विभिन्न भागों और धर्मों से आने वाले लोग फिर उसके आस-पास डांस करते थे, गीत गाते थे और मिलकर खाते थे. ईद पर सभी पड़ोसी हमें बधाई देते थे और मेरी हिन्दू माँ और मुस्लिम पिता के हाथ की बनी खीर खूब चाव से खाते थे. मेरा बचपन ऐसे बीता.
 
ये बातें मैं इसलिए बता रही हूँ क्योंकि ये मेरे जीवन की सच्चाई है. ठीक उसी तरह जैसे ये भी एक सच्चाई है कि अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाह बहुत काम दिखने में आते हैं और जब होते हैं तो परिवारों और समाज से अक्सर इन्हें समर्थन नहीं मिलता. मेरे माता-पिता को भी कुछ परिवारजनों का समर्थन नहीं मिला. कुछ का समर्थन मिला मगर प्रेम नहीं. कुछ ने उन्हें समर्थन और स्नेह दोनों दिए, जैसे मेरे एक मौसी और मौसाजी ने. दिवाली और रक्षाबंधन उनके यहाँ बनता था और उनका और हमारा एक दूसरे के यहाँ आना-जाना, साथ पकाना, खाना सामान्य बात थी. इसके साथ ही, परिवार के बाहर भी ऐसे लोग मिले जिन्होंने हमें हमारे अलग होने के कारण बहिष्कृत नहीं किया बल्कि हमें अपने जीवन में शामिल कर लिया और हम ने उन्हें .
 
मेरे अस्तित्व को न स्वीकार करने वाला कोई व्यक्ति मुझे 1999 तक नहीं मिला. मेरी नानी ने भी ये अस्तित्व नहीं स्वीकारा था पर मेरा सौभाग्य है कि मैं उन से कभी नहीं मिली. 1999 में मुझे पहली बार एहसास हुआ कि समाज में बहिष्कारिता का क्या अर्थ होता है - किसी के अस्तित्व को न स्वीकारना कैसा लगता है. मैं दिल्ली एयरपोर्ट से विदेश जा रही थी. अफसर ने मेरा पासपोर्ट लिया. उस पर मेरी माँ का नाम नीलिमा शर्मा और पिता का नाम शम्सुल इस्लाम था. अफसर ने मुझे घूर कर देखा और कहा "ये क्या है?". मैं समझ नहीं पायी. मैंने कहा, "सॉरी, सर; कोई प्रॉब्लम है क्या?" अफसर ने हैरानी और घोषणा-सी करने वाले सुर में कहा, "ये ग़लत है. यहाँ लिखा है कि आपके फ़ादर का नाम शम्सुल इस्लाम है और मदर का नीलिमा शर्मा. मैंने कहा, "नहीं, सर, ये सही है". अफसर नहीं माना और अपने से बड़े अफसर को बुलाने चला गया मैं.
 
मैं वहां खड़ी रही, ये सोचती हुई कि ये क्या माजरा है. मेरा पासपोर्ट वैलिड है, मेरे पास टिकट है और फिर भी मैं नहीं जा सकती क्योंकि यहाँ बैठे अफसर के मुताबिक मेरे माता और पिता के ये नाम हो ही नहीं सकते. ज़ाहिर है की मुझे ये एहसास भलीभांति था कि हिन्दू-मुस्लिम विवाह आम बात नहीं है. ये भी कि जब ऐसा होता है तो कुछ माँ-बाप और रिश्तेदार इसे लेकर आग बबूला हो जाते हैं, कई बार खून-खराबा भी हो जाता है. पर मुझे नहीं पता था कि कोई सरकारी अफसर आपके लीगल डॉक्यूमेंट को ग़लत क़रार दे सकता है क्योंकि आप के पेरेंट्स दो अलग-अलग धर्म के हैं. मैं वहां खड़ी रही. मुझे ये मौक़ा भी नहीं दिया जा रहा था कि मैं इस बेवकूफ इंसान को समझा सकूं कि पासपोर्ट पर लिखे नाम कितने सच हैं. समय बीतता जा रहा था - मुझे घबराहट हो रही थी. उस समय सेल फ़ोन इतने आम नहीं थे और वैसे भी मेरे पास सेल फ़ोन नहीं था कि मैं किसी को कॉल कर सकूं ये देखने के लिए कि क्या किया जाए. घबराहट बढ़ने लगी की कहीं फ्लाइट मिस न हो जाए. शुक्र है कि दूसरे अफसर ने मेरे पासपोर्ट को लीगल क़रार दिया और मुझे जाने की अनुमति मिली.
 
ये घटना मेरे लिए ही नहीं आप सब के लिए भी समझनी बहुत ज़रूरी है. ऐसा कब होता है जब आप का पूरा वजूद, आप के परिवार का अस्तित्व, आपके सरकारी काग़ज़ - वो सब कुछ जिन्हें आप अपनी पहचान के सकते हैं - कोइ मायने नहीं रखतीं? सिर्फ ये मायने रखता है कि सामने वाला अफ़सर आप की पहचान को वैलिड मानता है या नहीं. ऐसा नहीं है कि समाज में साम्प्रदायिकता नहीं है या जातिवाद नहीं है पर ऐसा क्या बदल जाता है कि लोग खुल कर आप को बता देते हैं कि एक हिन्दू और मुस्लिम की शादी हो ही नहीं सकती. और अगर ये बताने वाला एक सरकारी अफ़सर हो तो ये हम जैसे लोगों को अस्वीकार करने वाली ही नहीं बल्कि हमें अवैध बनाये देने वाली स्थिति है. ये क्यों संभव होता है? ये इसलिए संभव होता है क्योंकि सत्ता एक सांप्रदायिक संघ द्वारा चलायी जा रही है. 1999 में यही लोग सत्ता में थे. इसीलिये एक सरकारी अफ़सर भारत की एक नागरिक से कह पाया कि उसका पासपोर्ट अवैध है क्योंकि उसके माँ और पिता के धर्म अलग-अलग हैं. पर उस समय एक अफ़सर ऐसा भी था जो कह पाया कि पासपोर्ट वैध है, चाहे नाम जो भी हों.
 
1999 से 2020 के सफ़र में ऐसे अफ़सर लुप्त हो गए हैं - डरा दिए गए हैं या हटा दिए गए हैं. अब तो ऐसा लगता है कि कहीं कुछ भी संघ की मर्ज़ी के बिना नहीं हो सकता. ये इसलिए संभव हुआ है कि पिछले कई सालों में बड़े उद्द्योगपतियों ने संघ की भारी मदद की है. केवल एक साल में, 2018-2019 के बीच, बड़े कॉर्पोरेशंस ने बीजेपी को 473 करोड़ रूपए दान में दिए हैं. इनमें से 75% रुपए प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट ने दिए हैं. किसका है ये प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट? टाटा का. तो टाटा उद्योग ने एक साल में बीजेपी को 356 करोड़ रूपए दिए. कोइ कह सकता है कि उद्द्योगपति तो सभी राजनीतिक पार्टियों को पैसा देते हैं. उनकी जानकारी के लिए बता दें कि भारत के कॉर्पोरेट्स द्वारा बीजेपी को दिया पैसा इतना है कि उस को अगर चार हिस्सों में भी बांटा जाए तो एक हिस्सा मुश्किल से दूसरी राष्ट्रीय पार्टी को मिला (कांग्रेस). आज टाटा एक सुन्दर विज्ञापन बना कर कह रहा है कि "एक जो हुए हम तो क्या न कर जायेंगे" पर ये टाटा वो ही है जिसने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की बीजेपी सरकार को बनाने में अपने करोड़ों रूपए से भारी मदद करी है. कहने और करने में बहुत फ़र्क़ होता है.  
 
हमें एक विज्ञापन अच्छा लग सकता है पर अपना प्यार जताने से पहले ज़रा सोच लें कि CAA लाने वाली, गौरक्षा की आड़ में लोगों का खून करने वाली, रेप को सही बताने वाली, दलितों की लाशों पर खुशी मानाने वाली, संविधान की धज्जियाँ उड़ने वाली, डीमोनेटाईज़ेशन करने वाली, सरकारी संस्थानों का निजीकरण करने वाली, किसानों को बर्बाद करने वाली और प्रवासी मज़दूरों को मौत में धकेलने वाली शक्तियों को आखिर धनराशि देता कौन है? कहते हैं कि प्यार सोच कर नहीं किया जाता पर यहाँ तनिष्क़ से मोहब्बत कर बैठना किसी इंसान से प्यार नहीं बल्कि एक कॉर्पोरेट - एक कॉर्पोरेट के उत्पाद से प्यार है. ये एक भुलावा है जो सभी भुलावों की तरह आँख खुलते ही छूमंतर हो जायेगा.
 
इश्क़ करना है तो उस संघर्ष में हिस्सा लें जो कॉर्पोरेट और साम्प्रदायिकता के रिश्ते से निकली बर्बादी का विरोध कर रहा है. इश्क़ तो वो है जो नफ़रत और हिंसा का तोड़ हो. हिन्दोस्तान का हर वो बच्चा, औरत और मर्द जो आज ख़ौफ़ में जी रहा है क्योंकि उसका धर्म और जाति "राम राज्य" में अस्वीकार्य हैं, उस के साथ खड़े होना ही आज का सबसे सच्चा इश्क़ है. नीलिमा शर्मा और शम्सुल इस्लाम परिवार बना सकते हैं, सिख, जैन मुसलमान, हिन्दू, ईसाई और सभी एक-दूसरे के दोस्त हो सकते हैं, एक पड़ोस में सभी धर्मों, जातियों और क्षेत्रों के लोग हो सकते हैं, आदिल, करण और स्टैनली एक ही क्लास में पढ़ सकते हैं और चाहे मैं एक धर्म को मानूँ या मेरे घर में दो धर्मों को माना जाए या किसी भी धर्म को न माना जाए तो भी मेरे अधिकार और हमारा संविधान सुरक्षित हो - इसको बचाने वाला इश्क़ चाहिए आज. टाटा का तनिष्क तो उसका है जिसकी सत्ता है. हम हिन्दोस्तान के हैं. हमारा इश्क़ उसे बचाने के लिए ज़रूरी है. 
 
शीरीन,
पीस विजिल के लिए
 
पीस विजिल शांति शिक्षा का काम करती है. शांति के लिए हम सब का साथ ज़रूरी है. 

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